प्रसार शिक्षा का सिद्धांत | Principles of Extension Education
Hello Friends, इस लेख में हम प्रसार शिक्षा का सिद्धांत क्या है? की विस्तृत चर्चा करेंगे। यह लेख प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे NET JRF TGT PGT GIC B.A M.A तथा अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बहुत ही उपयोगी है। NET JRF TGT PGT GIC B.A M.A Home Science एवं अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी महत्वपूर्ण प्रश्न।
प्रसार शिक्षा का सिद्धांत | Prasar Shiksha ka Siddhant
प्रसार शिक्षा मुख्यतः ग्रामीण जीवन से जुड़ी हुई है। ग्रामीण व्यक्तियों की आवश्यकता को समझना, समस्याओं को पहचान कर उनका हल ढूंढना ही प्रसार शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य एवं लक्ष्य है। प्रसार शिक्षा के सिद्धांत का तात्पर्य उन कार्यों से है जो प्रसार कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए आवश्यक होते हैं। अतः ऐसे कार्य जो मनुष्य का विकास इस प्रकार से करें कि वह स्वावलंबी व आत्मनिर्भर होकर अपना व अपने परिवार तथा समाज का विकास कर सकें, प्रसार शिक्षा के सिद्धांत कहलाते हैं।
प्रसार शिक्षा के प्रमुख सिद्धांत निम्न है –
1. रुचियों एवं अनुभूत आवश्यकताओं का सिद्धांत
प्रसार कार्यक्रम की सफलता व्यक्तियों के रुचियों एवं अनुभूत आवश्यकताओं के ऊपर निर्भर करता है। प्रसार कार्यक्रम को शुरू करने से पहले लोगों की रूचियों एवं अनुभूत आवश्यकताओं को जान लेना जरूरी है। क्योंकि जब व्यक्ति स्वयं आगे बढ़कर सीखने की रूचि दिखाता है, अपनी आवश्यकताओं को पूरा करना चाहता है, समस्याओं का समाधान चाहता है। तभी प्रसार कार्यक्रम को सफलता प्राप्त होती है।
2. स्वेच्छा से या स्वैच्छिक शिक्षा का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा का सिद्धांत स्वेच्छा से या स्वैच्छिक शिक्षा पर आधारित है। सीखने की क्रिया स्वैच्छिक होनी चाहिए। दबाव में आकर सिखाया गया कार्य स्थायी नहीं रह सकता। और दबाव देकर सिखाने से सीखने की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। इसी कारण प्रसार शिक्षा मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन लाने पर जोर देता है। व्यक्ति के ज्ञान, कौशल, अभिवृत्ति में परिवर्तन होने से वह स्वत: प्रेरणा से आगे बढ़ता है और व्यक्ति के सोचने-समझने के तरीकों में परिवर्तन आता है और तभी व्यक्ति स्वयं को बदलने का प्रयास करता है। व्यक्ति में स्वत: ही सीखने की इच्छा उत्पन्न होती है और सीखने के बाद उसे जीवन में अपनाता भी है। वहीं यदि दबाव देकर सिखाया जाए तो व्यक्ति जल्दी ही निराश हो जाता है एवं उसके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।
3. स्वयं की सहायता का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा स्वयं की सहायता के सिद्धांत पर कार्य करती है। जब व्यक्ति स्वयं ही आगे बढ़कर सीखने का प्रयास करता है और अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए इच्छुक रहता है तथा प्रयास भी करता है तभी सीखना और सिखाना आसान होता है। परिणामत: प्रसार कार्य सफल हो जाता है। प्रसार कार्यक्रम में कृषकों को खेती करने की नई एवं उन्नत तकनीकों से परिचित करा कर उसके उपयोग के लिए प्रेरित किया जाता है। प्रसार कार्यकर्ता की भूमिका एक सहायक की होनी चाहिए, जो व्यक्तियों को प्रेरित कर समय-समय पर आने वाली समस्याओं का समाधान करने में अपना सुझाव प्रस्तुत करें।
4. स्वयं करके सीखने का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा स्वयं करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है। स्वयं कार्य करके व्यक्ति अधिक सीखता है और वह स्थायी होता है। प्रसार शिक्षा सैद्धांतिक नहीं वरन् पूर्ण रूप से व्यवहारिक शिक्षा है। कृषि की उन्नत तकनीक को पाठशाला में बैठाकर नहीं बताया जा सकता है इसलिए उनके कार्य-क्षेत्र अर्थात ‘खेतों’ पर बताई जाती है और उन्हें स्वयं उनका अनुपालन करना होता है। यही कारण है कि प्रसार शिक्षण के अंतर्गत विधि प्रदर्शन तथा परिणाम प्रदर्शन का उपयोग किया जाता है। किसी भी कार्यक्रम के प्रति व्यक्तियों के मन में विश्वास स्थापित करने का यह एक उचित तरीका है।
5. स्वावलंबन का सिद्धांत
जब व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी कार्य को सीखने व करने के लिए तैयार हो जाता है तो उसमें आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन की भावना जागृत होती है जो व्यक्ति को सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। आत्मविश्वासी व्यक्ति नई चीजों को अपनाकर प्रयोग कर स्वावलंबी बनता है और आय अर्जित करने लगता है तथा अपना व अपने परिवार की स्थिति को सुधार कर रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाता है। स्वावलंबन उन्हें जीवन के अनेक क्षेत्रों में सहायता प्रदान करती है। नई पद्धतियों एवं जानकारियों को अपनाकर जीवन में कुछ कर दिखाने को प्रोत्साहित करती है। व्यक्ति अपने कार्य-क्षेत्र में नित्य-प्रति उठने वाली समस्याओं का हल भी स्वयं ढूंढने का प्रयास करता है और कठिन से कठिन समस्या का समाधान भी स्वयं कर लेता है।
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6. सहयोग का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा कार्यक्रम सहयोग के सिद्धांत पर आधारित है। यह कार्यक्रम मुख्यतः ग्रामीणों के उथान के लिए बनाए जाते हैं। अतः कार्यक्रम की सफलता के लिए ग्रामीणों का सहयोग मिलना आवश्यक है। प्रसार कार्यकर्ता एवं ग्रामीणों को मिल-जुलकर एक दूसरे के सहयोग से कार्य करना होता है। प्रसार कार्यक्रम तभी सफल हो सकता है जब ग्रामीणों का विश्वास एवं सहयोग प्राप्त कर प्रसार कार्यक्रमों का कार्यान्वित किया जाए।
7. अनुनय, अभिप्रेरणा एवं प्रोत्साहन का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा कार्यक्रम मुख्यतः ग्रामीणों के उत्थान के लिए कार्य करती है। ग्रामीण सदियों से पिछड़ेपन का शिकार रहे हैं। भारत की गरीब जनता सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत, अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं। ग्रामीण अंधविश्वास, भ्रांतियां, रूढ़िवादिता, संदेह, ईर्ष्या, आदि भावनाओं से ग्रस्त होते हैं। ऐसी स्थिति में वे न तो किसी पर जल्दी विश्वास कर पाते हैं और ना ही परिवर्तन के इच्छुक होते हैं। वे नई तकनीकों को जल्दी अपनाते नहीं है। उनके व्यवहार को बदलना बड़ा ही कठिन कार्य है। इसलिए प्रसार कार्यकर्ता को प्रसार कार्यक्रम शुरू करने से पहले ही गांव के नेताओं और पढ़े-लिखे ग्रामीणों को अनुनय-विनय करके मनाना पड़ता है। उन्हें कार्यक्रम की अच्छाई को समझना होता है। उनके मान जाने पर ही कार्यक्रमों को गावों में क्रियान्वित करना होता है। उसके बाद लोगों को प्रेरित कर सिखाया जाता है और जल्दी सीखने वालों को पुरस्कार भी दिया जाता है। जिससे वे सीखने के लिए प्रोत्साहित हो सके। और प्रसार कार्यक्रम सफल हो सके। अतः प्रसार कार्यक्रम की सफलता में अनुनय, अभिप्रेरणा तथा प्रोत्साहन का योगदान अमूल्य है।
8. धीमा किंतु सतत विकास का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा धीमा किंतु सतत, विकास के सिद्धांत पर आधारित है। शीघ्रता से बनाए व चलाए गए कार्यक्रमों का परिणाम अस्थाई होता है। वह जल्दी ही धीमी पढ़कर रुक जाती है। विकास की गति भले ही धीमी रहे किंतु निरंतर रूप से चलते रहना चाहिए। प्रसार कार्यकर्ता को कार्यक्रम चलाने में जल्दी बाजी नहीं करनी चाहिए। क्षेत्र विशेष के विषय के बारे में पहले अच्छी तरह समझना चाहिए तथा लोगों के स्वभाव, रुचि, समस्याओं, आदि के बारे में जानकारी करने के बाद ही योजना बनानी चाहिए। गांवों में अनेक समस्याएं होती हैं, किंतु प्रसार कार्यकर्ता को सभी समस्याओं के समाधान के लिए एक साथ ही कार्यक्रम नहीं बनाना चाहिए। जो समस्या अतिआवश्यक है, उसके समाधान हेतु पहले कार्यक्रम बनाना चाहिए। अतः विकास की गति भले ही धीमी हो परंतु लगातार होते रहना चाहिए। तभी प्रसार कार्यक्रम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
9. नमनीयता का सिद्धांत
प्रसार शिक्षण में नमनीयता अर्थात लचीलापन का विशेष महत्व है। प्रसार शिक्षा ग्रामीणों के विकास तथा जीवन स्तर में सुधार लाने की शिक्षा है। यह व्यक्तियों की रुचियों, आवश्यताओं को ध्यान में रखकर दी जाती है। व्यक्ति जिस वातावरण में रहता है, वहीं पर जाकर उसे उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग कर शिक्षा दी जाती है। प्रसार कार्यक्रमों को ग्रामीणों की जरूरत के अनुसार परिवर्तित कर उनकी समस्याओं को दूर करने का प्रयास करना चाहिए ताकि प्रसार कार्यक्रम की सफलता को सुनिश्चित किया जा सके। अतः प्रसार कार्यक्रम में लचीलापन होना चाहिए।
10. सांस्कृतिक भिन्नता का सिद्धांत
भारत विविधताओं का देश है। यहां विभिन्न प्रकार की भाषाएं, धर्म, संस्कृति, परंपराएं, रीति-रिवाज, पहनावा, खान-पान की आदतें हैं। यह व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं। प्रसार कार्यकर्ता को चाहिए कि प्रसार कार्यक्रम के प्रारंभ से पूर्व ही क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक विभिन्नता को जान लें जिससे प्रसार कार्यक्रम को ठीक प्रकार से संचालित करके सफलता प्राप्त हो सके।
11. सांस्कृतिक परिवर्तन का सिद्धांत
‘परिवर्तन‘ प्रकृति का नियम है। सांस्कृतिक परिवर्तन के अनुसार प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं शिक्षण विधियों में भी परिवर्तन होना चाहिए। प्रसार शिक्षा मानव विकास पर आधारित है। व्यक्ति के जीवन में जब परिवर्तन आते हैं, वह शिक्षित होता है, उसका बौद्धिक स्तर ऊंचा उठता है तो अनेक सामाजिक कुरीतियों, गलत परंपराओं एवं रीति-रिवाजों के बंधन से विमुक्त होता है। प्रसार कार्यक्रमों के द्वारा वह बाहरी दुनिया, विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेशों को जानता है और उससे अपनाता भी है। अतः व्यक्ति के रहन-सहन, रीति-रिवाज, परंपराएं मान्यताएं, सभी में परिवर्तन आते हैं जो सांस्कृतिक परिवर्तन के द्योतक है।
12. जड़ से आरंभ करने का सिद्धांत
किसी भी समस्या को दूर करने के लिए उसकी जड़ तक पहुंचाना आवश्यक है जिससे उसके निराकरण का उपाय ढूंढा जा सके। अशिक्षा, गरीबी, तकनीकी ज्ञान का अभाव, आधुनिक साधनों की कमी जैसे तत्व ग्रामीणों की समस्याओं को प्रभावित करते हैं। समस्या की जड़ तक पहुंच कर ही उसका कारण एवं समाधान निकाल सकते हैं। प्रसार कार्यकर्ता को ग्रामीणों की वर्तमान-स्थितियों जैसे – आर्थिक, बौद्धिक, आवासीय, संसाधन संपन्नता, आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर कार्यक्रम का आयोजन करना चाहिए। जिससे प्रसार कार्यक्रम सफल हो सके।
13. सहभागिता का सिद्धांत
पैसा शिक्षण सहभागिता के सिद्धांत पर आधारित है। प्रसार कार्यक्रम की सफलता के लिए लोगों की सहभागिता अति आवश्यक है जिससे लोगों में कार्यकर्ता एवं कार्यक्रमों के प्रति विश्वास बढ़ता है। वे आसानी से कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए उत्साहित हो जाते हैं। प्रसार कार्यक्रम में जब तक ग्रामीणों की सहभागिता नहीं होगी, तब तक कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता।
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14. संपूर्ण परिवार तक पहुंच का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा संपूर्ण परिवार तक पहुंच के सिद्धांत पर कार्य करती है। प्रसार शिक्षा द्वारा केवल एक व्यक्ति का विकास नहीं अपितु पूरे परिवार का विकास होता है। सामाजिक संरचना परिवार ‘केंद्र‘ में है। अतः केंद्र का ध्यान रखना आवश्यक है। यदि परिवार के सदस्यों में किसी निर्णय के प्रति सहमति नहीं बन पाती तो वह निर्णय नहीं लिया जाता। परिणामस्वरूप कार्यक्रम असफल हो जाता है। अतः कार्यक्रम की सफलता के लिए आवश्यक है कि परिवार के सभी सदस्य उन्हें दिल से अपनाएं।
15. स्थानीय नेतृत्व का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा की सफलता के लिए स्थानीय नेताओं का सहयोग एवं सहभागिता अति आवश्यक है। ग्रामीणों का विश्वास बाहरी नेता की अपेक्षा स्थानीय नेता में अधिक होता है। वे अपने नेता पर पूरा विश्वास करते हैं। प्रसार कार्यकर्ता को अपने कार्य क्षेत्र के प्रभावशाली लोगों को तलाश कर कार्यक्रमों के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उन्हें सौंपना चाहिए। क्योंकि ग्रामीण अपने नेता की बात स्वीकार करने में हिचकिचाते नहीं है। गांवों में नए विचार प्रस्तुत करने में ग्रामीण नेतृत्व का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। किंतु प्रसार कार्यकर्ता को नेता का चुनाव विवेकशीलता से करना चाहिए। जरूरत होने पर किसानों तथा युवकों को प्रसार प्रशिक्षण केंद्र भेजकर उपयुक्त प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है। जिससे प्रसार कार्य तीव्र एवं सफलतापूर्वक चल सके। यह पोस्ट हमारे सहयोगियों द्वारा प्रायोजित है।
16. संतुष्टि का सिद्धांत
मनुष्य के जीवन में संतुष्टि एक प्रेरक की भूमिका निभाती है। जब ग्रामीण प्रसार कार्य से संतुष्ट होता है उस कार्य को करने की पद्धति तथा उन कार्यों में विश्वास व्यक्त करने लगता है तो प्रसार कार्यक्रम से निश्चित रूप से लाभान्वित होता है जो उसे समृद्धि एवं संपन्नता की ओर ले जाता है। स्वयं कार्य करके जब व्यक्ति को लाभ प्राप्त होता है तो उससे पूर्ण संतुष्टि की प्राप्ति होती है। और जब लोग कार्यक्रमों के प्रति संतुष्ट होते हैं तो प्रसार कार्यकर्ता के साथ उसका संबंध अच्छा होता है तथा अन्य विकास एवं प्रसार कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने में सुविधा होती है।
17. प्रजातांत्रिक प्रकृति का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा पूर्णत: प्रजातांत्रिक तरीके से दी जाने वाली शिक्षा है। जो व्यक्ति की रुचि, आवश्यकता, उपलब्ध संसाधनों एवं समस्याओं को ध्यान में रखकर दी जाती है। प्रसार कार्यक्रम की सभी योजनाएं लोगों के विचार-विमर्श द्वारा बनाई जाती है। कार्यक्रम से किस प्रकार अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो सके, इसका विचार सब मिल-बैठकर करते हैं। इसके माध्यम से ग्रामीण पंचायत को भी एक स्वस्थ स्वरूप मिलता है।
18. व्यवहारिक विज्ञान एवं तकनीक का सिद्धांत
प्रसार शिक्षण एक व्यवहारिक शिक्षण पद्धति पर कार्य करती है। जिसमें लोगों को प्रदर्शन (DEMONSTRATION) करके बताया जाता है। प्रसार शिक्षा दो तरफा शिक्षण प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी, दोनों ही सामान्य रूप से सीखने-सिखाने की क्रिया में भाग लेते हैं। प्रसार शिक्षा द्वारा नई पद्धतियों, नई जानकारिओं एवं सूचनाओं को ग्रामीणों तक पहुंचाया जाता है, जिससे वे लाभान्वित हो सके तथा व्यवहारिक विज्ञानों एवं तकनीकों का भरपूर उपयोग हो सके।
19. प्रशिक्षित विशेषज्ञ का सिद्धांत
प्रसार कार्य का क्षेत्र इतना व्यापक है कि कोई एक व्यक्ति हर विषय का विशेषज्ञ नहीं बन सकता। प्रयोगशाला की सूचनाओं एवं तकनीकों को उसी तरह ग्रामीणों तक नहीं पहुंचाया जा सकता। उसे ग्रामीण भाषा में अनुवाद कर ग्रामीण जनता की समझ के अनुकूल बनाया जाता है जिससे वे आसानी से समझ व सीख सकें। इस कार्य में प्रसार कार्यकर्ता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परंतु ग्रामीणों की समस्या किसी एक विषय से जुड़ी हुई नहीं रहती है। उनकी समस्याएं – पशुपालन, कृषि, भंडारण, कीटनाशक, समाजशास्त्र, डेयरी, आदि से संबंधित हो सकता है। प्रसार कार्यकर्ता सभी विषयों का विशेषज्ञ नहीं होता। अतः आवश्यकतानुसार प्रशिक्षित विशेषज्ञों को गांवों मैं बुलाकर समाधान दिलवाता है। अथवा ग्रामीणों को रिसर्च स्टेशन, कृषि विज्ञान केंद्र तक पहुंचता है तथा प्रशिक्षण दिलवाता है और स्वयं भी जानकारी प्राप्त करता है। प्रसार कार्यकर्ता को कार्य बहुउद्देशीय होता है। विशेषज्ञों से जानकारी प्राप्त कर उन जानकारियों एवं तकनीकों को जनता तक पहुंचाना होता है। इसके लिए पूर्ण दक्षता प्रशिक्षण एवं धैर्य की आवश्यकता होती है।
20. निरपेक्षता एवं तटस्थता का सिद्धांत
प्रसाद शिक्षण निरपेक्षता एवं तटस्थता के सिद्धांत पर आधारित है। प्रसार शिक्षा का आधार ही ‘प्रजातांत्रिक‘ है जिसमें सभी धर्म, भाषा-वर्ग, लिंग, जाति के लोग भाग लेते हैं, कार्यक्रम में सभी को एक समान महत्व दिया जाता है। सभी का सहयोग लिया जाता है और सभी की जरूरतों को ध्यान में रखकर कार्यक्रम तैयार किया जाता है। प्रसार कार्यकर्ता को इस सिद्धांत का पालन करना होता है कि वह जातिगत, धर्मगत, दलगत भावनाओं से अलग होकर निरपेक्ष एवं तटस्थ रहे। प्रसार कार्य सभी के हितों की रक्षा करता है तथा कार्यक्रम से लाभ प्राप्त करना सभी का अधिकार है – इसके लिए प्रसार कार्यकर्ता को सजग रहना चाहिए।
21. समता का सिद्धांत
प्रसार कार्यक्रम समता के सिद्धांत पर आधारित है। गांव में विविध संप्रदाय, जाति, धर्म एवं वर्ग के लोग निवास करते हैं। इनके रीति-रिवाज, परंपराएं, मान्यताएं एवं संस्कृति में अंतर होता है। परंतु आगे बढ़ने के लिए सभी को समान अवसर प्राप्त होने चाहिए। कार्यक्रम बनाते समय प्रसार कार्यकर्ता को यह ध्यान रखना चाहिए कि कार्यक्रम का लाभ समान रूप से सभी संप्रदायों, धर्मावलंबियों एवं जातियों को प्राप्त हो। ऐसा ना होने पर प्रसार कार्य का प्रजातांत्रिक ढांचा खंडित होता है तथा समुन्नत ग्रामीण विकास की कल्पना भी अधूरी रह जाती है।
22. स्थानीय संसाधनों के प्रयोग का सिद्धांत
प्रसार शिक्षण स्थानीय संसाधनों के प्रयोग के सिद्धांत पर कार्य करती है। प्रसार कार्यकर्ता को स्थानीय, मानवीय एवं भौतिक साधनों को पहचान कर उनका भरपूर उपयोग करना चाहिए। ग्रामीण महिलाओं, बच्चों एवं युवा शक्ति को उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप कार्य का प्रशिक्षण देकर उनके जीवन स्तर में सुधार लाने का प्रयास करना चाहिए।
23. स्थानीय संगठनों के सहयोग का सिद्धांत
प्रसार कार्य में स्थानीय संगठनों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। इनके माध्यम से कार्यक्रमों को चलाने में प्रसार कार्यकर्ता को सुविधा होती है। ऐसे संगठन जो मानव कल्याण के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं, उनकी सहायता लेनी चाहिए। उनसे विचार-विमर्श कर सुझाव लेना चाहिए। जिससे प्रसार कार्यक्रम को सफलता प्राप्त हो सके।
24. शिक्षण-पद्धतियों के प्रयोग से अनुकूलनशीलता का सिद्धांत
प्रसार कार्य तभी सफल होता है जब उपयुक्त शिक्षण विधियों का चयन किया जाता है। लोगों के शैक्षिक स्तर में अंतर होने पर उनके बौद्धिक स्तर एवं उनकी समझ में भी अंतर आता है। ऐसी स्थिति में किसी एक शिक्षण पद्धति का प्रयोग कर सभी को एक साथ शिक्षा देना संभव नहीं है और ना ही व्यवहारिक है। ग्रामीणों को जब एक से अधिक शिक्षण-पद्धतियों द्वारा सूचनाएं दी जाती है तो लोग ठीक ढंग से तो वह समझ पाते हैं और प्रसार शिक्षण अधिक प्रभावकारी होता है।
25. मूल्यांकन का सिद्धांत
प्रसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। इसके लिए व्यक्तियों के व्यवहार में परिवर्तन लाना है जिससे वे नई तकनीक, नए विचारों एवं सूचनाओं को ग्रहण कर अपनी कार्यक्षमता एवं कार्यकुशलता बढ़ा सकें। यदि ग्रामीण अपने व्यवहार में परिवर्तन लाकर नवीन तकनीकों को अपनाता है और उनका आर्थिक स्तर ऊंचा उठता है तभी प्रसार कार्यक्रम को सफल समझा जाता है। इसके विपरीत यदि उनके व्यवहार में रहन-सहन में परिवर्तन नहीं होता है, तो समझना चाहिए कि प्रसार कार्यक्रम सफल नहीं हुआ है। इसी को मूल्यांकन कहते हैं। कार्यक्रम की सफलता एवं असफलता को मूल्यांकन द्वारा आंका जाता है। अगर कार्यक्रम असफल हुआ है तो उन कारणों की खोज करके पुनः कार्यक्रम की शुरुआत की जा सकती है।
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